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भाजपा की मंडी में सुरेश पचौरी

भाजपा की मंडी में सुरेश पचौरी

हरिशंकर व्यास
सुरेश पचौरी को खरीदा नहीं गया होगा। इसलिए क्योंकि बुढ़ापे में भला उनका मूल्य क्या है? मान्यता है कि बूढ़े नेता और बूढ़ी वेश्या का बुढ़ापा एक सी मनोव्यथा में होता है। दोनों संताप, लाचारगी और भूख में फडफ़ड़ाते होते हैं। क्या होती है दोनों की मनोव्यथा? इस बात का संताप की कभी वह कोठे की हूर, सत्ता का जलवा लिए हुए थे। तब सब लोग आगे-पीछे घूमते थे। वाह-वाह करते थे। दलालों से घिरे रहते थे। पैसा बरसता था। शाही ठाठ था। तूती बोलती थी। वैभव और जलवा था। यह जो ‘जलवा’ शब्द है वह सत्ता के गलियारे के नेताओं और कोठे में जवानी के ठसके वाली वेश्या को तब भीतर ही भीतर गलाता है जब वह पॉवर और जवानी से आउट होते हैं। तब वैभव के दिनों को याद करते हुए इस संताप में रहते हैं कि कभी मेरे आगे-पीछे दुनिया घूमती थी। कोठी और कोठे पर भीड़ होती थी। हर कोई एक झलक के लिए, इनायत के लिए तरसता था। वे कैसे अच्छे दिन थे और अबज्.बुढ़ापा कटे तो कैसे कटे।

कांग्रेस ने कोई पचपन साल राज किया। सत्ता की दिल्ली कोठियां कांग्रेसियों से भरी हुई थीं। सत्ता और जवानी के मजे लिए। लोगों को बेवकूफ बनाया। वैभव और जलवे से जीये! पर अंतत: बुढ़ापा। जनता का मन भरा। और उनकी जगह नरेंद्र मोदी और भाजपा की ताजगी, जवानी पर लोग फिदा हुए तो सोचें कांग्रेसियों के बूढ़े चेहरों की मनोदशापर । एसएम कृष्णा, गुलाम बनी आजाद आदि, आदि। और अब सुरेश पचौरी।
कुछ दिन पहले ही मिले थे। पर मुझे रत्ती भर अनुमान नहीं हुआ कि वे भीज्.। उन्हें कांग्रेस ने 1981 से लेकर 2011 की अवधि में इंदिरा, राजीव, सोनिया गांधी की कांग्रेस ने क्या नहीं दिया! 24 साल याकि चार टर्म राज्यसभा सांसद थे। कार्मिक, रक्षा जैसे अहम मंत्रालय में मंत्री रहे। सोनिया गांधी और अहमद पटेल के सबसे विश्वस्त।

पर कल मैंने जब उन्हें भाजपा की मंडी में देखा तो मुझे हिंदुओं की इस राजनीति पर घिन हुई। समझ नहीं आया मोदी-शाह ने पचौरी का क्या मूल्य लगाया होगा? और पचौरी ने क्या चाहते हुए भगवा पहना? ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं है। भारत में सत्ता से बाहर हुए नेता (किसी भी पार्टी का) को तो बस सत्ता के मेले का, भर्ती मेले का इंतजार रहता है। भला सत्ता के नशे के बिना कैसे जिंदगी गुजरे। तभी तो राजनीति और वेश्यावृत्ति को एक जैसा माना जाता है। हां, हिंदुओं को हजार साल पहले राजा भर्तृहरि द्वारा उद्घाटित इस सत्य को याद रखना चाहिए कि, ‘वारांगना इव नृपनीति’। मतलब राजनीति, वेश्या है। इस नीति श्लोक का पूरा खुलासा यह है कि- कभी सत्य, कभी झूठ, कभी मिथ्या, कभी कटुभाषिणी और कभी प्रियभाषिणी, कभी हिंसा और कभी दयालुता, कभी लोभ और कभी दान, कभी अपव्यय और कभी धन संचय करने वाली जैसे वेश्या होती है उसी भांति राजनीति भी अनेक रूप धारण कर लोगों को लुभाती है, मूर्ख बनाती है। (‘वारांगनेव नृतनीतिरनेकरूपा। सत्यानृता च परुषा प्रियवादिनी चहिंस्रा दयालुरपि चार्थपरा वदान्या। नित्यव्यया प्रचुरनित्यधनागमा चवाराङ्गनेव नृपनीतिरनेकरुपा’। -भर्तृहरि नीति शतक श्लोक 47)

और मालूम है हाल के वर्षों में राजनीति और वेश्या का ज्ञान किसने बघारा था? आरएसएस के सुप्रीमो कुप सी सुर्दशन ने। उन्होंने राजनीति को वेश्यावृत्ति समान तब बताया था जब लालकृष्ण आडवाणी ने जिन्ना की मजार पर जिन्ना की प्रशंसा की थी। उस पर बवाल हुआ तो डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखना था- सुदर्शनजी ने कुछ गलत नहीं कहा। ज्ऐसा कहनेवाले भर्तृहरि थे। वे स्वयं राजा थे। वे अपनी ‘नृपनीति’ की विसंगतियां उजागर कर रहे थे। वे वेश्या की अम्मा नहीं थे। जनसंघ और भाजपा तो संघ की बेटियां हैं। संघ उनकी अम्मा है। मां अपनी बेटियों के बारे में कुछ भी कहे तो बेचारी बेटियां क्या बोल सकती हैं? वे तो चुप हैं। उन्हें चुप रहना ही सिखाया गया है लेकिन भाजपा की यह चुप्पी न केवल उसके लिए अपितु राष्ट्रीय राजनीति के लिए घातक सिद्घ हो सकती है। गोवा में जो हुआ, वह इससे भी ज्यादा भीषण है। पैसों और पदों के खातिर कौन नेता और कौन दल कब शीर्षासन की मुद्रा धारण करेगा, कुछ नहीं कह सकते। सत्ता की खातिर कांग्रेस कब भाजपा बन जाएगी और भाजपा कब कांग्रेस बन जाएगी, कोई नहीं जानता।

सोचें, भर्तृहरि, सुदर्शन तथा डॉ. वेदप्रताप वैदिक के कहे में आज की सच्चाई क्या है? पूरा देश खरीद-फरोख्त की वह मंडी है, जिसमें दीन-ईमान सब बिकता है। लोगों के दीन-ईमान को मजबूर किया जाता है कि वह बिके जैसे वेश्याओं को जिस्म बेचने के लिए मजबूर किया जाता है। कहीं कोई चरित्र नहीं। इंच भर धर्म-ईमान नहीं है और हल्ला है रामराज्य का! सवाल है जिस राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के प्रमुख ने आडवाणी जैसे नेता को आईना दिखाया था वह भाजपा की खुली मंडी, खरीद-फरोख्त से कैसे गौरवान्वित है? पर यह फैसला करना मुश्किल है कि संघ गौरवान्वित है या शर्मसार? शायद जवाब हो कि कांग्रेस भी ऐसा ही करती थी। आयाराम-गयाराम, दलबदल सब कांग्रेस के समय से होता आ रहा है। और नीति शतक कहता ही है कि वेश्या मतलब राजनीति, राजनीति मतलब वेश्या है तो नियति के आगे हम अपने चाल, चेहरे, चरित्र से क्या कर सकते हैं।

ठीक बात है। गुलाम इतिहास से संस्कारित हिंदुओं का हजार साल से यही रोना है कि हमारे बस में क्या? जैसे प्रभु रखेंगे वैसे रह लेंगे।
शायद यही सोच है, जिसके कारण भारत में किसी को दीन-ईमान बेचने या खरीदने में रत्ती भर संकोच नहीं होता। आखिर व्यक्ति जब दिन-रात सत्ता के नशे में धुत हुआ रहता है तो उसे बिना नशे के चैन मिल ही नहीं सकता। भारत और दुनिया के सभ्य लोकतांत्रिक देशों का यही फर्क है जो वहां राजनीति एक प्रोफेशन है, लोक प्रशासन है, जबकि भारत में सत्ता की भूख है, रूतबा है। हिंदुओं ने हजार साल विदेशी शासकों, विधर्मी शासन की ताबेदारी और कोतवाल व्यवस्था में भयाकुल जीवन जीया है तो बूझ सकते हैं दिल-दिमाग में सत्ता की भूख कितनी पैठी हुई है?

कोई भले इस बात को न माने लेकिन मेरा मानना है कि अंग्रेजों से 15 अगस्त 1947 को हमें जो आजादी मिली थी वह हम देशज लोगों की इस भूख, छटपटाहट को लिए हुए थी कि बस जैसे भी हो हमें फटाफट पॉवर चाहिए। तभी अंग्रेजों से वह भारतीयों को पॉवर ट्रांसफर था। तभी न अंग्रेजों की बनाई व्यवस्था बदली और न दिल्ली का सत्ता चरित्र बदला। उलटे सर्वजनों में अधिकार के नाम पर पॉवर की बंदरबांट हुई। वह कुछ भी नहीं हुआ, जिससे चरित्र बने। संस्कार, नैतिक मूल्य बने। भाईचारा और समानता बने। त्रासद सत्य है कि एक तरफ लोकप्रियता के पीक के बावजूद खरीद-फरोख्त के लिए हर संभव तिकड़म है वही चालीस-पचास साल लगातार पॉवर भोगने के बावजूद नेता लोग बिकने को तैयार। धोखा देने, अहसानफरामोशी के लिए तत्पर। इसलिए क्योंकि जीवन भर जब कोठी-कोठे में जलवे से जीवन जीया गया है तो वे बेचारे बुढ़ापा कैसे सडक़ पर गुजारें।

सब कुछ होते हुए भी पॉवर में रहा व्यक्ति भारत में बिना पॉवर सडक़ का लावारिस होता है। करे क्या वह, कोई पूछता नहीं। कभी ग्राहकों की भीड़ थी और अब कोई झांकता भी नहीं है तो उसे सत्ता की मौजूदा दुकान के आगे कटोरा ले कर खड़ा ही होना होगा।
तब नेता बिरादरी की इस फडफ़ड़ाहट को भला गुजरात की धंधे की तासीर में पले-बढ़े नरेंद्र मोदी और अमित शाह क्यों न भुनाएं? इसलिए भर्ती मेला कहें या मंडी, सबको न्योता है, आओ अपना ईमान बेचो।

तभी दस वर्षों से रेला लगा हुआ है। न विचार की वफादारी है और न ईमान की, न ही अहसान की। कुल मिलाकर सत्य क्या? राज किसी का भी हो, भारत की राजनीति सदा-सर्वदा वारांगना (वेश्या) है। समय के साथ उसमें विस्तार है और रामराज्य व अमृतकाल की तो वह इतिहासजन्य विशिष्टता है। क्या नहीं?

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