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खाद्यान्नों की महंगाई नहीं रूक रही

खाद्यान्नों की महंगाई नहीं रूक रही

अजीत द्विवेदी
एक बार फिर सरकार की ओर से उपभोक्ता मूल्य सूचकांक यानी सीपीआई पर आधारित महंगाई दर के आंकड़े जारी हुए हैं और एक बार फिर कहा गया है कि खाने पीने की चीजों की कीमतों में बढ़ोतरी की वजह से खुदरा महंगाई दर बढ़ी है। जब भी महंगाई दर बढ़ती है तो लगभग हर बार यही कारण होता है कि खाने पीने की चीजों की कीमतें बढ़ी हैं। इस बार जो आंकड़ा आया है यानी सितंबर, 2024 का उसमें कहा गया है कि खाने पीने की महंगाई दर 5.66 फीसदी से बढ़ कर 9.24 फीसदी हो गई। इसी वजह से सितंबर महीने की खुदरा महंगाई दर अगस्त के 3.65 फीसदी से बढ़ कर 5.49 फीसदी हो गई।

जाहिर है अगस्त में भी खुदरा मंहगाई दर बढऩे में खाद्यान्नों की महंगाई का ही हाथ था क्योंकि महंगाई दर के आकलन में खाने पीने की चीजों का हिस्सा 50 फीसदी होता है। बहरहाल, सितंबर में तो खाने पीने की चीजों की कीमतों ने रिकॉर्ड ही तोड़ दिया। खाने पीने की चीजों की महंगाई 9.24 फीसदी यानी दहाई के करीब पहुंच गई। इसमें सबसे ज्यादा महंगाई सब्जियों की कीमत में दिखी, जो अगस्त के 11 फीसदी से बढ़ कर सितंबर में 36 फीसदी पहुंच गई। सोचें, सितंबर के महीने में सब्जियों की कीमत 36 फीसदी बढ़ी है! सितंबर में महंगाई दर मासिक आधार पर करीब दो फीसदी और सालाना आधार पर करीब एक फीसदी ज्यादा रही है।

इस आंकड़े से सबसे पहला सवाल जो दिमाग में आता है वह ये है कि क्या खाने पीने की चीजों का उत्पादन कम हो रहा है या उनकी आपूर्ति शृंखला में कुछ गड़बड़ी है, जिसकी वजह से इन वस्तुओं की कीमत बढ़ रही है? ध्यान रहे अर्थशास्त्र का सामान्य नियम है कि मांग और आपूर्ति में अंतर से कीमतें घटती या बढ़ती हैं। मांग कम है और आपूर्ति ज्यादा तो कीमत कम होगी और अगर आपूर्ति कम है तो कीमत बढ़ेगी। लेकिन खाने पीने की चीजों के मामले में इसका उलटा हो रहा है। देश में खाद्यान्न का रिकॉर्ड उत्पादन हो रहा है। खाने पीने की हर चीज का उत्पादन बढ़ रहा है। इसके बावजूद कीमतें कम होने की बजाय लगातार बढ़ रही हैं। इसका मतलब है कि आपूर्ति शृंखला में कहीं न कहीं गड़बड़ी है या जमाखोरी के जरिए कृत्रिम तरीके से कीमतें बढ़ाई जा रही हैं।

अगर ऐसा है तो यह बहुत बड़ा संकट है और इससे देश की खाद्यान्न सुरक्षा खतरे में पड़ेगी। सरकार को जग जाना चाहिए और इसे तत्काल रोकने की कोशिश करनी चाहिए क्योंकि कृत्रिम तरीके से कीमतें बढ़ती हैं तो किसान और आम उपभोक्ता दोनों घाटे में रहते हैं और बिचौलिए या जमाखोरों को फायदा होता है। अगर कीमतें काबू में नहीं आती हैं तो केंद्रीय बैंक के लिए ब्याज दरों में कटौती संभव नहीं हो पाती है और ऊंची ब्याज दर का असर विकास दर पर होता है। इसका मतलब है कि कृत्रिम महंगाई किसान, उपभोक्ता और देश की अर्थव्यवस्था तीनों के लिए ठीक नहीं है।

कृत्रिम महंगाई को लेकर सबसे पहले सब्जियों की ही बात करें तो यह सही है कि इस साल सामान्य से ज्यादा बारिश हुई है लेकिन कहीं भी बारिश से फसल बरबाद होने की खबर नहीं आई है। फिर भी सितंबर में सब्जियों की महंगाई 36 फीसदी बढ़ी है। इस आंकड़े की बारीकी में जाएं तो पता चलेगा कि सबसे ज्यादा महंगाई प्याज और टमाटर की बढ़ी है। प्याज और टमाटर दोनों की कीमत 78 फीसदी की दर से बढ़ी है। यानी सब्जियों की महंगाई जिस दर से बढ़ी है उससे दोगुनी दर से प्याज और टमाटर की कीमत बढ़ी है। सब्जियों की थोक महंगाई भी लगभग 50 फीसदी की दर से बढ़ी है। जब फसल बरबाद नहीं हुई और उत्पादन कम नहीं हुआ तो आखिर इनकी कीमतों में इतनी बढ़ोतरी कैसे हुई? ध्यान रहे सरकार का अपना आंकड़ा है कि पिछले एक दशक से आलू, प्याज और टमाटर इन तीनों सब्जियों का उत्पादन भारत में रिकॉर्ड दर से बढ़ रहा है। प्याज के उत्पादन में तो चीन को पीछे छोड़ कर भारत पहले नंबर पर आ गया है और आलू व टमाटर के उत्पादन में दूसरे नंबर पर है। फिर भी इनकी कीमत कम नहीं हो रही है। ऐसा भी नहीं है कि भारत के लोग पहले से ज्यादा आलू, प्याज और टमाटर खाने लगे हैं। भारतीय रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक भारत में लोगों के मासिक खर्च में सब्जियों का हिस्सा पिछले एक दशक से तीन से चार फीसदी पर ही स्थिर है। जहां तक निर्यात की बात है तो भारत में आलू और टमाटर का जितना उत्पादन होता है उसका महज दो फीसदी निर्यात होता है। प्याज का निर्यात जरूर थोड़ा ज्यादा होता है। लेकिन वह भी 10 फीसदी से कम ही है। इसका मतलब है कि उत्पादन बढ़ रहा है, घरेल खपत नहीं बढ़ रही है, निर्यात भी स्थिर है फिर भी कीमतें बढ़ रही हैं!

ऐसा नहीं है कि यह स्थिति सिर्फ सब्जियों के मामले में है। दूसरे खाद्यान्नों में भी यही स्थिति है। गेहूं और धान की भी रिकॉर्ड पैदावार हो रही है लेकिन इनकी कीमतें भी कम नहीं हो रही हैं। इस साल 11.30 करोड़ टन गेहूं का उत्पादन हुआ, जो पिछले साल के 11 करोड़ टन से ज्यादा है। यह अलग बात है कि इस साल सरकारी खरीद कम रही। किसानों ने सरकार को गेहूं नहीं दिया तभी सरकार सिर्फ 266 लाख टन ही गेहूं खरीद सकी, जबकि लक्ष्य 320 लाख टन खरीद का था। सरकार के गोदाम में गेहूं कम आए इसका मतलब है कि बाजार में निजी कारोबारियों ने ज्यादा गेहूं खरीदा और उसका भंडारण किया और कृत्रिम तरीके से महंगाई बढ़ाई। सितंबर तक गेहूं की कीमतों में प्रति क्विंटल एक सौ रुपए तक की बढ़ोतरी हो चुकी है और आटे की कीमत भी तीन से चार रुपए किलो तक बढ़ी है। इसका असर अगस्त में सभी ब्रांड के ब्रेड्स पर पड़ा और उनकी कीमतें बढ़ गईं।

अब इसी से जुड़ा यह अहम सवाल यह है कि खाने पीने और सब्जियों की कीमतों में बढ़ोतरी होती है तो क्या इसका फायदा किसान को होता है? इसका जवाब पिछले ही दिनों भारतीय रिजर्व बैंक ने दिया है। रिजर्व बैंक ने बताया है कि आलू, प्याज और टमाटर पर हम लोग यानी एक सामान्य उपभोक्ता जितना खर्च करता है उसका एक तिहाई हिस्सा यानी 33 फीसदी ही किसानों को मिलता है। रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक लगभग इतना ही पैसा आढ़तिए यानी थोक व्यापारी ले जाते हैं। इसके बाद रेहड़ी, पटरी वाले या सब्जियों के खुदरा व्यापारियों को एक तिहाई हिस्सा मिलता है। सोचें, सुदामा पांडेय ‘धूमल’ की कविता पर! एक आदमी रोटी बेलता है, एक आदमी रोटी खाता है, एक तीसरा आदमी भी है, जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है, वह सिर्फ रोटी से खेलता है, मैं पूछता हूं- यह तीसरा आदमी कौन है, मेरे देश की संसद मौन है। वह तीसरा थोक और खुदरा व्यापारी है, जिसकी जेब में सारे पैसे जा रहे हैं। किसानों को उनकी फसल की उचित कीमत नहीं मिल रही है और उपभोक्ता के ऊपर खाने पीने की चीजों की महंगाई का बोझ भी बढ़ रहा है। इसे दुरुस्त करने के लिए तत्काल भंडारण की पुख्ता व्यवस्था करनी होगी, बिचौलियों पर लगाम लगानी होगी और आपूर्ति शृंखला में सुधार करना होगा।

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